आज बिगाड़ और सुधार की प्रक्रिया एक साथ चल रही है। हर आदमी ज़्यादा से ज़्यादा लाभ अपने लिए समेट लेना चाहता है। वोटों का लेनदेन और अपने प्रतिनिधि का चुनाव जनता इसी भावना से करती है। इसी भावना से चुनाव प्रत्याशी अपने चुनाव में जनता के लिए शराब से लेकर नाच रंग तक हर चीज़ मुहैया कराते हैं। व्यापारी वर्ग ज़्यादा लाभ समेटने की आशा में ही सब दलों को मोटा चंदा देते हैं। इसी आशा में मज़ार के मुजाविरों से लेकर आश्रमों के बाबा तक सभी अपना आशीर्वाद सप्लाई करते हैं। फिर चुनाव के नतीजे निकलते हैं और लाभ समेटने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है। एक वर्ग जो सदा से ही जागरूक है वह दूसरों को दबाये रखने की चालें चलता रहता है और जो अब जागरूक हो रहे हैं वे लोग पहले से जागरूकों से मुक्ति पाने का प्रयास करते रहते हैं। इस प्रयास में तब्दीलियां भी आ रही हैं और बहुत बार जागरूकता का यही प्रयास संघर्ष में भी बदल जाता है। समय गुज़र रहा है लेकिन इंसान के अंदर ज़्यादा लाभ के लिए ज़ुल्म कर डालने की भावना क़ाबू में नहीं आ पा रही है। यही भावना इंसान की जागरूकता को मक्कारी में बदल कर रख देती है। व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इस भावना पर क़ाबू पाए बिना जागरूकता को रचनात्मकता में बदलना संभव नहीं है। http://hbfint.blogspot.com/2011/08/blog-post_1236.html
मनमोहन जी को अब एक नयी सहानुभूति लहर चलानी चाहिए उन्हें कहना चाहिए : 'चोर' भी तो आखिर इंसान होता है... इस बात को सुनकर सभी चोर-उचक्के और जेलों में भरे कैदी एक-जुट हो जायेंगे ... और अगले चुनावों के पूरा सपोर्ट भी करेंगे.
7 comments:
:)
Aap kuchh lete kyun nahi...
सच ही तो बोल रहे हैं।
आज बिगाड़ और सुधार की प्रक्रिया एक साथ चल रही है। हर आदमी ज़्यादा से ज़्यादा लाभ अपने लिए समेट लेना चाहता है। वोटों का लेनदेन और अपने प्रतिनिधि का चुनाव जनता इसी भावना से करती है। इसी भावना से चुनाव प्रत्याशी अपने चुनाव में जनता के लिए शराब से लेकर नाच रंग तक हर चीज़ मुहैया कराते हैं। व्यापारी वर्ग ज़्यादा लाभ समेटने की आशा में ही सब दलों को मोटा चंदा देते हैं। इसी आशा में मज़ार के मुजाविरों से लेकर आश्रमों के बाबा तक सभी अपना आशीर्वाद सप्लाई करते हैं। फिर चुनाव के नतीजे निकलते हैं और लाभ समेटने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है।
एक वर्ग जो सदा से ही जागरूक है वह दूसरों को दबाये रखने की चालें चलता रहता है और जो अब जागरूक हो रहे हैं वे लोग पहले से जागरूकों से मुक्ति पाने का प्रयास करते रहते हैं। इस प्रयास में तब्दीलियां भी आ रही हैं और बहुत बार जागरूकता का यही प्रयास संघर्ष में भी बदल जाता है।
समय गुज़र रहा है लेकिन इंसान के अंदर ज़्यादा लाभ के लिए ज़ुल्म कर डालने की भावना क़ाबू में नहीं आ पा रही है। यही भावना इंसान की जागरूकता को मक्कारी में बदल कर रख देती है।
व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इस भावना पर क़ाबू पाए बिना जागरूकता को रचनात्मकता में बदलना संभव नहीं है।
http://hbfint.blogspot.com/2011/08/blog-post_1236.html
मनमोहन जी को अब एक नयी सहानुभूति लहर चलानी चाहिए
उन्हें कहना चाहिए : 'चोर' भी तो आखिर इंसान होता है...
इस बात को सुनकर सभी चोर-उचक्के और जेलों में भरे कैदी एक-जुट हो जायेंगे ... और अगले चुनावों के पूरा सपोर्ट भी करेंगे.
aakhir pardhan ji hain... kuchh karne ke liye thode hi thode hi pradhan bane hain...
शानदार! बहुत अच्छा।
main to sirf haath pe haath dhare baitha hun..ismain mere kya galati hai :)
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