कीर्तिश जी, कई बार पाठकों पर भी शब्द नहीं होते। जैसे किसी की मौत पर हम मौन उपस्थिति देकर लौट आते हैं या एक-दूसरे को ढांढस बँधाते हैं। वैसे ही हम लोकतंत्र की मौत पर मौन होकर चुप बैठे हैं या कुछ संवेदनशील रचनाकार अपने-अपने तरीकों से ढांढस बँधा रहे हैं।
आप अपने व्यंग्य चित्रों से एक साथ कई व्यंग्यात्मक चीज़ें एक साथ ले आये हैं। - शासक वर्ग की कोरी बयानबाजी, असंवेदनशीलता, गहरे चश्मे के पीछे छिपी छिछली वेदना।
2 comments:
कीर्तिश जी, कई बार पाठकों पर भी शब्द नहीं होते। जैसे किसी की मौत पर हम मौन उपस्थिति देकर लौट आते हैं या एक-दूसरे को ढांढस बँधाते हैं। वैसे ही हम लोकतंत्र की मौत पर मौन होकर चुप बैठे हैं या कुछ संवेदनशील रचनाकार अपने-अपने तरीकों से ढांढस बँधा रहे हैं।
आप अपने व्यंग्य चित्रों से एक साथ कई व्यंग्यात्मक चीज़ें एक साथ ले आये हैं। - शासक वर्ग की कोरी बयानबाजी, असंवेदनशीलता, गहरे चश्मे के पीछे छिपी छिछली वेदना।
शब्द नहीं, कुछ लब्ध नहीं।
Post a Comment